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चारित्र्य-मोहनीय कर्म का क्षय या उपगम करने का अपूर्व अध्यवसाय प्राप्त करता है, तब अब तक अप्राप्त-ऐसी एक अपूर्व भूमिका उसे प्राप्त होती है । यह आत्मिक उत्थान-काल का विशिष्ट भावोत्कर्ष है । यहाँ उसे कर्मो की स्थिति-रस का अप घात, अपूर्व सनमरण, अपूर्व स्थितिबध, और कर्म के उपशम या क्षय के लिये उमकी अपूर्व रचना (गुरणश्रेणी) ये पाँच अपूर्व करने होते है, इसलिए इसे जैनागमो मे अपूर्वकरण गुरणस्थानक कहा गया है। __यदि हम इन गुणस्थानक को 'अपूर्वसदन' कहे तो ठीक ही होगा। (E) अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक -
चारित्र्यमोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करते करते साधक को जो अपूर्व अनुभव प्राप्त होता है वह उसे नौवे गुणस्थानक मे ला देता है। यहाँ सर्व ममान श्रेणी के आत्माओ के प्रति नमानताभाव पूर्ण कलायो से खिलता है, और साधक को अपूर्वकरण के विशिष्ट फल का निर्मल अनुभव कराता है ।
इस गुणस्थानक को 'अनुभवसदन' कहना भी उचित होगा । वीतरागता की भॉकी इस गुणस्थानक से होने लगती है। (१०) सूक्ष्मसपराय गुणस्थानक -
मोहनीय कर्म का उपगम या क्षय होते होते अन्त मे केवल लोभ (राग) का सूक्ष्म अश वाकी रह जाता है । इस स्थिति को सूक्ष्मपरपराय गुणस्यानक कहते है । साधक इस गुणस्थानक मे वीतरागता के बहुत निकट या जाता है, और प्रयत्नशील जाग्रत दगा की पुष्टि करता हुआ परमात्मपद