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निश्चयपूर्वक त्याग करना।
विश्व की वर्तमान साधुसस्थानो मे जैन साधुसस्था को निस्सदेह सर्वोत्तम साधकमडल माना जाता है । जो कठिन
आचार एव कठोर तपश्चर्याएँ जैन साधुओ के नित्य जीवन के समान है, उनकी बराबरी कर सके ऐसी अन्य कोई भी व्यवस्थित साधुसस्था विश्व भर मे नही है । (७) अप्रमत्त गुणस्थानक -
प्रमाद दशा का प्रयत्नपूर्वक त्याग करके प्रमादरहित कर्तव्यपरायणता मे प्रवर्तमान बन कर आत्मा सातवे 'अप्रमत्त गुणस्थानक' को उपकारक श्रेणी प्राप्त करता है । यहाँ विशेप ध्यान रखने की बात यह है कि इस गुणस्थानक पर आने के वाद यहाँ स्थिर नही रहा जाता । या तो तेजी से ऊपर के गुणस्थानक की ओर प्रयाण होता है या वहुधा प्रमादवशता
आजाने से साधक पुन नीचे 'पारामसदन' मे उतर जाता है । फिर से कर्तव्य-परायणता की रस्सी पकड कर अप्रमत्त दशा मे पुन लौट आता है । इस प्रकार प्रमाद तथा अप्रमाद के वीच की कशमकश मे झोके खाता हुअा अात्मा जव अप्रमत्तता को दृढ बना देता है, और अपूर्व वीर्योल्लास प्रकट करता है तव उसके लिए वहाँ से आगे बढ़ने का मार्ग खुलता है।
इस गुणस्थानक मे साधक को अप्रमत्तता सहित सयमयोग मे अत्यत जागरूक रहने का परिश्रम करना पडता है। अत इसे यदि हम 'योगमदन' नाम दे तो उचित ही होगा। (८) अपूर्वकरण गुणस्थानक --
जव साधक अप्रमत्त रह कर उत्कृष्ट चारित्र्य पालते पालते