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३४६ प्राप्त करने के विल्कुल करीव या बडा होता है । यह वीतराग अवस्था की अपेक्षित 'मित्र अवस्था 'है, अत इमे हम 'मित्रसदन' भी कह सकते है । (११) उपशान्तमोह गुणस्थानक -- ___यह एक विशिष्ट प्रकार का गुणस्थानक है। सातवे से दगवे गुणस्थानक तक साधक मे सूक्ष्म राग द्वेपादि रहते है। आठवे मे अपूर्वकरण करके नौवे पोर दसवे मे साधक 'उपशम' या 'क्षय' की प्रवृत्ति करता है। इनमे से यदि उपशम की क्रिया प्रारभ की हो तो दसवे गुणस्थानक पर वह पूर्ण हो जाने पर प्रात्मा इस गुणस्थानक पर आता है । यहाँ पर मोह सर्वथा उपशात होने से इसे 'उपगातमोह' कहते है।
हमे 'उपशम' और 'क्षय' का अर्थ अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । 'उपशम' अर्थात् बाह्य उपचारो से रोग को शात करना, और 'क्षय' अर्थात् रोग को जड से निकाल देना । जब डॉक्टर किसी रोग को कुछ समय के लिये दूर करने के लिए (Temporary telhef देने के लिए) जो दवाई देता है उससे वह पीडा उस समय के लिए तो दूर हो जाती है । यह रोग का उपशम कहलाता है । परन्तु उस रोग के फिर लौट आने की (उथला देने की) सभावना दूर करनी हो तो अस्थायी उपचार से ऐसा नही किया जा सकता। ___ अग्नि को शात करने के लिए हम दो प्रकार के उपाय करते है। एक तो उस पर राख ढंक देते है । राख ढंक देने से अग्नि को प्रज्वलित होने के लिए वायु रूपी साधन नहीं मिलता, जिससे अग्नि धीरे धीरे शात हो जाती है, बुझ जाती है । परन्तु हवा का एकाध झोका आने से या अन्य किसी