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संस्कार जनित एकत्व भी होता हो है । इस प्रकार विचार करते करते, "मेरा परिवार, मेरी ज्ञाति, मेरा समाज, मेरा घर, मेरा गाँव, मेरा जिला, प्रान्त, देश, मेरी पृथ्वी, मेरा आकाश और सेरा जगत, " ऐसा जब हम कहेंगे तब उन सव के साथ 'मेरेपन का सस्कार' होने के कारण हम एकत्व का अनुभव कर सकेंगे, तथा यह सब भी 'में' ही हू, ऐसा कह सकेंगे 1
इस प्रकार जगत के समस्त जीवो के साथ जव सस्कारजनित एकत्व उत्पन्न होगा तव ऐसा भाव अवश्य आएगा कि "इन सव जीवात्माओ मे 'मैं' हूँ ।' उसी प्रकार जगत के जड पदार्थों के साथ का हमारा - आत्मा का सम्बन्ध देखते हुए 'यह सब भी मेरा है' ऐसे सस्कार चित्त मे पडने से यह सव भी 'में' ( मै – स्वरूप ) बन जाएगा ।
आत्मा के विषय में इतनी बात सुन कर आप शीघ्र ही एक प्रश्न पूछेंगे -
"वेदान्तियो के जैसी ही यह वात हुई । यद्वैत के विषय मे श्री शंकराचार्य की ओर से जो बात कही गई है, वैमी ही बात आपने भी की ।"
"नही, इसमे 'अद्वैत' आया तो सही किन्तु यह अद्वैत वेदान्त मत का नही है क्योकि वेदान्त का अभिप्राय ऐकान्तिक है । हमने जो वात की है सो सापेक्ष दृष्टि से और उसमे अनेकान्त की स्पष्ट छाया है, यह न दृष्टि से हम समस्त विश्व के साथ एक 'सत्' नामक महासामान्यरूप मे है | इसमे जब हम जड़ को भी 'में' समझते हैं तब जड़ विषयों का भोग करने की आसक्ति विराम प्राप्त कर
भूलिये । सग्रह - नय की