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प्रकाशक का वक्तव्य
अनेकान्त-स्याद्वाद जैनधर्म के अहिंसामय आचार और अनेकान्त सिद्धान्त की विश्वश्रेष्ठता के विषय में आज कोई मतभेद नहीं है। परन्तु अनेकान्त के सिद्धान्त को सरल तथा बातचीत की पद्धति से प्रस्तुत करने की आवश्यकता
की पूर्ति प्राधुनिक साहित्य मे कही दिखाई नही देती। ___ सूचित करते हुए अत्यन्त हर्प होता है कि अहमदावाद निवासी स्वर्गीय श्री चन्दूलाल सकरचद ने अपने जीवन काल मे जैन धर्म की शुद्ध सेवा करने के उद्देश्य से अपना उपर्युक्त शैली में लिखा हुआ अनेकान्त-स्याद्वाद विषयक एक भव्य गुजराती निवन्ध तैयार कर हमे प्रदान किया । आज हमे वह और उसका हिन्दी, मराठी तथा अग्रेजी अनुवाद करवा कर प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त हुया है।
यह निवन्ध वडी रोचक शैली में लिखा हुआ है, इसलिए कहानियो की पुस्तक की तरह सतत रसपूर्वक पढा जा सकता है । इममे समाविष्ट आधुनिक हटान्तो-उपमानो की विपुलता, पारिभाषिक शब्दो का यथासभव कम प्रयोग, यावश्यक वैज्ञानिक तुलना आदि की शैली इस प्रकार के गभीर तात्त्विक ग्रन्थो की दुनिया में बिल्कुल नई वस्तु है ।
इस निबन्ध मे अनेकान्तवाद के घरेलू प्रसग, अनेकान्त का विशद स्वरूप, सात नय, सप्तभगी, नवतत्त्व, जीवन एव जगत की जटिल ममस्याएं हल करने में अनेकान्तवाद की प्रवल उपयोगिता तथा नमस्कार महामत्र अादि विपयो का समावेश किया गया है। प्रतिपादन इतना युक्तिवर्ग तथा मनोविज्ञान के नियमानुसार किया गया है, कि कोई भी तटस्थ जैनेतर भी इसका ध्यानपूर्वक पठन कर लेने पर, हमें विश्वास है कि, अनेकान्त की श्रद्धा लेकर ही उठेगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ का शास्त्रीय दृष्टि से निरीक्षण करने का कार्य प० श्री भानुविजयजी गणी ने किया है और उसका हिन्दी अनुवाद प्रो वी टी परमार एम ए, बी एम सी , साहित्यरत्न ने किया है । अत हम उनके आभारी है।
जैन मार्ग आराधक समिति, गोकाक ।