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________________ निवेदन अधिक लम्बी चौडी बात करने की मेरी इच्छा नहीं । जब कि एक ओर तत्त्वसपत्ति का विपुल भण्डार पड़ा हुआ है तब दूसरी ओर ऐसा भी 'वाछकर ( 'इच्छुक') वर्ग है जिसे यह भी नही मालूम कि यह भण्डार कहां पड़ा हुआ है ? _ 'मुझ से इन लोगो को कुछ लाभ हो' ऐसी सद्भावना मन मे जागृत होते ही एक छोटा-सा चमचा अपने आप गतिशील हुअा और अपनी शक्ति के अनुसार अपने माथ (ज्ञान भण्डार ) लिये इच्छुक वर्ग के सामने उपस्थित होता है। भला एक छोटे-मे चमचे की गुजाइश ही कितनी? इससे कही पेट थोडे ही भर मकता है ? तृप्ति थोडे ही हो सकती है ? फिर ऐसी धृष्टता क्यो? कारण सिर्फ इतना छोटा-सा ही तो है । इस चमचे में लगे हुए अमृतसिन्धु के विन्दु का स्वाद चखकर, कोई इच्छुक उक्त विपुल भडार की खोज मे उद्यमशील हो जाय • वस .. सिर्फ इतना ही। ससार का सब से बडा दुर्भाग्य है कि 'अनेकान्तवाद' को किसी एक सम्प्रदाय की मुहर लग गई है। ___ जैसे सूर्य और चन्द्र को साम्प्रदायिक तत्त्व नही माना जा सकता, जैसे वे सारे विश्व के कल्याणकारक समझे जाते है ठीक उसी तरह 'अनेकातवाद' के नाम से प्रसिद्ध तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति कही भी क्यो न हुई हो, विश्वके लिये मगलमय है । गणितशास्न की खोज किसी ने भी की हो, किमी भी व्यक्ति द्वारा उसे अक्षरदेह प्राप्त हुआ हो, किसी भी भाषा मे लिखा गया हो, फिर भी सामूहिक रूप मे वह एक और विश्वमान्य है। ठीक उसी तरह यह 'अनेकान्तवाद' भी एक विश्वकल्याणकारक तत्त्वज्ञान है । लौकिक एव लोकोत्तर, दोनो क्षेत्रो मे 'अनेकातवाद' और 'स्याद्वाद' ज्ञान का प्रधान महत्त्व है।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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