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(घ) पुदगलास्तिकाय . 'पूर' और 'गल्' इन दो धातुरो के मिलन से 'पुद्गल' शब्द की उत्पत्ति हुई। 'पूरण' और 'गतन' का अर्थ हे मिलना और अलग होना-जुड जाना और गिर पडना । जिसका स्वभाव इस तरह का हो उसके लिये 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग किया गया है। पुद्गल का मिलने'
ओर अलग होने का कार्य दो प्रकार से होता है-एक तो जीव की सहायता से और दूसरा अपने आप । इस चराचर विश्व की समग जड रचनाएँ जीव की सहायता से अथवा अपने
आप मिल कर फिर अलग होते हुए इस पुद्गल पदार्थ के कारण ही होती हे और होती रहेगी।
(च) जीवास्तिकाय जो जड नही है उसे चैतन्यशाली चेतन माना गया है । यह चैतन्यशाली चेतन भी एक द्रव्यपदार्थ है जिसे हम प्रात्म-द्रव्य के नाम से जान सकते है।।
(छ) काल छठे द्रव्य का नाम है 'काल' । इस 'काल' द्रव्य का अर्थात् समय द्रव्य का भी अपना स्वतत्र अस्तित्व रहता है । जैन दृष्टानो ने इसे भी एक जड द्रव्य माना है । __विश्व की समग्र रचनाएँ उपरोक्त छ द्रव्यो मे ही समा जाती हैं । जीव रूप चेतन द्रव्य, पुद्गल रूप जड-द्रव्य (शरीर) से मिलकर, अाकाश द्रव्य-रूपी स्थल मे, 'धर्म' द्रव्य
और 'अधर्म' द्रव्य की सहायता से 'गति' और 'स्थिति काल द्रव्य को साथ लेकर करता है ।
जन तत्त्वज्ञान के अनुसार विश्व-रचना किस प्रकार हुई, इस सम्बन्ध मे हमने चर्चा की है । यहाँ पर इस बात का स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि 'धर्म', 'अधर्म' 'आकाश'