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सतर्क और युक्ति-सगत है।
(८) जैन तत्त्वज्ञान ने इस जगत के आधार स्प छ द्रव्य बताये है । द्रव्य अर्थात् पदार्थ । ये छ द्रव्य निम्नलिखित है - . (क) धर्मास्तिकाय : यहाँ पर 'धर्म' शब्द का अर्थ 'गति मे सहायक द्रव्य' बतलाया गया है । यह धर्म-द्रव्य जगत मे जो कुछ भी गतिमय है उसकी गति मे सहायता पहुचाता है।
(ख) अधर्मास्तिकाय इस 'अधर्म' शब्द को पढ़ कर घबरा जाने की कोई बात नही । यहाँ 'अधर्म' का अर्थ होता है 'अगति', हम उसे 'स्थिति' कहेगे। जिस तरह कोई गतिसहायक धर्म पदार्थ है ठीक उसी तरह स्थिति में सहायता देने के लिये भी कोई एक द्रव्य चाहिए । और यह दूसरा 'अधर्म द्रव्य' अथवा स्थिति मे सहायक द्रव्य है । घूमना-फिरना (गतिमय होना) और स्थित होना इसमे जीव और जड पदार्थ स्वय स्वतत्र कर्ता है । लेकिन उनकी गति मे और स्थिति मे सहायक बनने वाले पदार्थो का होना आवश्यक है। इस वात को अब आधुनिक वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करने लगे है। जैन दार्शनिको ने इसके लिये 'धर्म' और 'अधर्म' नाम के दो पदार्थ अनादिकाल से बताये है ।
(ग) आकाशास्तिकाय : कोई ऐसा भी द्रव्य होना चाहिए जिसमे दूसरे सभी द्रव्यो को समा लेने की, सम्हालने की तथा अवकाश देने की शक्ति हो । और वह द्रव्य है 'आकाश द्रव्य' । यह आकाग, तो अब सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य पदार्थ है। दिशाओं का समावेश भी आकाश मे हो जाता है । इस द्रव्य के दो विभाग है-(१) लोकाकाश और (२) श्लोकाकाश ।