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चौबीस - चौबीस तीर्थकर होते चले आये है और होते ही रहेगे । आज हम वर्तमान काल चक्र के अवसर्पिणी- विभाग मे है । काल के इन दोनो विभागो मे से भी प्रत्येक छ हिस्सो मे बाँटा गया है । इस हिस्से को 'आरा' नाम दिया गया है । आज हम वर्तमान अवसर्पिणी के पाचवे 'आरे' मे है ।
अतीत मे हये अनन्त कालचक्रो मे प्रत्येक उत्सर्पिणी और प्रत्येक अवसर्पिणी मे चौबीस - चौबीस तीर्थकर हो गये, ऐसा समझा जाता है और इस क्रम को अनादि अनत माना जाता है, अर्थात् जैन लोग अपने धर्म को भी अनादि, शाश्वत और निश्चल मानते है । ऐसे अनादि और अन्त कालचक्रो की परम्परा की भाँति जैन धर्म भी अनादि है और अनन्तकाल तक रहेगा ।
( ७ ) इस विश्व या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति या अंत मे जैन तत्त्वज्ञान को विश्वास नही । जगत को अनादि अनंत माना गया है । जगत का न तो कोई प्रारम्भ है और न कोई अन्त ही । इसी तरह इस जगत का कर्ता कोई ईश्वर या ब्रह्म-तत्त्व है, इस मान्यता को जैन तत्व-ज्ञान स्वीकार नही करता । जिस तरह काल-चक्र अनादि है, ठीक इसी तरह जगत भी अनादि है और यदि उसे 'सादि' माना जाय और ईश्वर या ब्रह्मतत्व जैसे किसी को भी 'कर्ता' माना जाये तो फिर उस 'आदि' से पहले क्या था ? और उस 'कर्ता' का अस्तित्व कहाँ से आया ? ऐसे बहुत से प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते है । जगत के किसी भी अन्य तत्त्व - ज्ञान ने इन सभी प्रश्नो के जवाब सन्तोषपूर्ण नही दिये, इसीलिये इस सम्बन्ध मे जैन दर्शन की मान्यता