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(सीढियाँ) वताये है उन चौदह गुणस्थानको का परिचय हम पिछले पृष्ठो मे प्राप्त कर चुके है । इन सोपानो को एक के बाद एक पार करने की समयावधि पाँच कारणो के अधीन रह कर मनुष्य के अपने पुरुपार्थ पर निर्भर है । ये सब बाते बुद्धिगम्य है, तर्कसिद्ध है प्ररि आचार-सिद्ध भी है। (It is completely rational, there is nothing abstract in it)
इन सब का मूल, जीवन जीने के मुख्य सन्मार्ग का मध्य विन्दु 'स्याद्वाद' है । प्रात्मा को मुक्ति के मार्ग की साधना मे स्याद्वाद की लोकोत्तर उपयोगिता का विशिष्ट स्थान है । मुक्ति का मार्ग प्रतीन्द्रिय (इन्द्रियो से परे) है । प्रात्मा तथा कर्म का सयोग एव वियोग, उसका हेतु, उमके कारण ग्रादि सब कुछ अतीन्द्रिय-ज्ञानगम्य है । जव तक पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान न हो जाय तव तक मनुष्य के मन मे अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इसलिये तो इम लेखक ने मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थानक पर विचार करने वाले इस जगत कोइम गुणस्थानक को-'सभ्रमसदन' कहा है । जब तक इन सब सभ्रमो और विभ्रमोका बुद्धिगम्य और श्रद्धाग्राह्य निराकरण न हो जाय तब तक आत्मा के अन्तिम ध्येय को पहुंचने के विकास मार्ग मे कोई प्रगति नहीं हो सकती।
स्याद्वाद की जानकारी से इन सव सभ्रमो का बुद्धिग्राह्य निराकरण किया जा सकता है । एक एक मार्ग को अपना कर खडे हुए दर्शनो की त्रुटियाँ उससे दूर हो सकती है । वस्तु का सर्व देशीय ज्ञान तथा प्रात्मा की मुक्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी स्याद्वाद की जानकारी से ही हो सकता है ।
हमे तो इस प्रकार के आवश्यक (तथाविध) वीर्योल्लास