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अपने आपको मुक्त करने के लिये सतत् चितनशील तथा प्रयत्नशील रहना सभव है ।
इस पर से यह न माने कि प्राचार की अपेक्षा विचार का महत्त्व अधिक है । जिस तरह अच्छे विचार वर्ताव सुधार सकते है ठीक उसी तरह अच्छे आचार भी विचार को उच्च स्तर पर ले जा सकते हैं । उसी न्याय से, जिस तरह बुरे विचार बर्ताव को बिगाड देते हैं उसी तरह बुरे आचार विचारो को भी अध पतन की ओर ले जाते हैं । इसलिये इन दोनो के बीच के आपसी सम्बन्धो का एक समान महत्व है ।
अव एक ऐसे मनुष्य का विचार कीजिये जो किसी देव को प्रसन्न करने की सोचता रहता है लेकिन उसका हेतु, सासारिक, भौतिक सुखो को प्राप्त करने का होता है । किसी ने उसमे कहा कि मनुष्य का बलिदान करने से प्रमुक देव प्रसन्न होकर हमारे मन की इच्छा पूरी करते हैं । स्वार्थ से अन्धा बना हुआ वह मनुष्य सोच विचार किये बिना ही इस बात को स्वीकार कर लेता है और उसके मुताबिक वर्ताव करना प्रारंभ कर देता है । आज के जागृत और सुसस्कृत कहलाने वाले युग मे भी ऐसी बातो का होना असंभव नही । चालक की - सतान प्राप्ति की इच्छा वाले मां-बाप, दूसरो के बालको को मार डालते हैं ऐसी वाते ग्राज भी समाचार-पत्रो मे और न्याय की अदालतो मे हमे पढने या सुनने को मिलती हैं ।
इस तरह श्राचारभ्रष्ट होने वाले मानव की क्या दशा होगी ? ऐसे लोगो के लिये शरावी, मासाहारी, जुहारी, चोर