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आत्मा, कर्म, धर्म और मोक्ष-मार्ग के विषय मे विपरीत खयाल लिये धूमने वाले भी इस स्थान पर आकर रुके होते है। उदाहरणार्थ कोई देवीभक्त यज्ञ करवाता हो, हिसादि का आचरण करता हो और फिर भी 'भगत' कहलाता हो तो उसका स्थान इस प्रथम भूमि पर ही है । इसी प्रकार आत्मसाधना करने वाला साधक भी यदि सत्य-मार्ग पर न हो तो उसका स्थान भी इस 'मिथ्यात्व गुणस्थानक' मे ही होता है । वडे बडे पडित, माधक, तपस्वी और धनवान दातागण भी इस श्रेणी मे हो सकते है । सामान्यतया कहा जाय तो कुछ भाग्यशालियो को छोड कर लगभग सभी आज गुणश्रेणी की इस प्राथमिक भूमिका पर ही है ।
फिर भी हम यदि इस गुणस्थानक पर गुण लेकर आ खडे हो तो यह भी एक प्राथमिक सिद्धि ही है, क्योकि ' मैत्री लक्षणा-मित्रा दृष्टि" प्राप्त करके हम इस गुणस्थानक पर आये है। ____ यह 'मित्रा' दृष्टि आत्मा को प्राप्त होने वाली आठ दृष्टियो मे से प्रथम सिद्धि है। आत्मा मे चित्त की मृदुता, तत्त्व के प्रति अद्वेपवृत्ति, अनुकम्पा, अशत भी अहिसा, सत्य आदि कल्याणदायक साधनो की अभिलाषा, आदि प्राथमिक सद्गुण 'मित्रा दृष्टि' से प्रकट होते है । आत्मा यह दृष्टि प्राप्त होने के फलस्वरूप इस प्रथम गुण-स्थानक मे आकर प्रवृत्ति करता है । परन्तु जब तक वह सम्यग्दृष्टि से वचित हो और मिथ्यादृष्टि को न छोडे तब तक उसका स्तर नही बढता। वह अनेक प्रकार के भ्रम तथा सभ्रम से पूर्ण प्रवृत्तियाँ करता रहता है । वह भौतिक क्षेत्र मे नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त करता