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रहता है, और 'मित्रा' दृष्टि से प्राप्त सद्गुणो का उपयोग भो करता रहता है, परन्तु जब तक उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नही होता अथवा मिथ्यादर्शन छोडा नही जाता तब तक उसकी गाडी प्रथम गुणस्थानक के स्टेशन से रवाना नहीं होती।
'मिथ्यात्वगुणस्थानक' को हम 'सभ्रम-सदन' का नाम भी दे सकते है।
प्रथम गुणस्थानक से आगे बढने के लिये 'सम्यक्त्व' एक साधन है । इस साधन को प्राप्त करने मे अनेकात दृष्टि तथा स्याद्वादतवत्ज्ञान की सहायता प्राप्त करने की प्रवृत्ति उपयोगी सिद्ध होती है।
२ सास्वादन गुणस्थानक -
यदि सम्यग् दृष्टि प्राप्त कर ली जाय तो फिर प्रथम गुणस्थानक से चौथे गुणस्थानक को जाने की आत्मा की विकासयात्रा तो शुरु हो जातो है परन्तु यह विकासयात्रा ऊर्ध्वगामी-पर्वत के शिखर की अोर गति करने वाली होने के कारण कदाचित् मार्ग मे अटक कर फिसल कर कुछ नीचे सरक कर 'सास्वादन' नामक दूसरे गुणस्थानक मे आ जाना पडता है। इसके लिए रागद्वेप की प्रवृत्ति जिम्मेदार होती है । यह गुणस्थानक चौथे गुणस्थानक पर पहुंचाने के बाद वापस गिरते समय का गुणस्थानक है, अोर अल्प समय का माना जाता है।
जैसे ननुष्य कोई सुन्दर, नाजुक चीज ले आता है और क्रोध, मोह आदि कषायो के कारण उसे तोड फोड देता हैया फेक भी देता है, उसी तरह सम्यग् दृष्टि रूपी सुन्दर सीढी प्राप्त करने के वाद अनन्तानुवधी (चिकने-चिपकने वाले)