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करीव पाँच साल के अध्ययन और परिश्रम के बाद, आज जब मैने यह लिखना शुरु किया तब भी मुझे अपनी अल्पज्ञता का भान, जैसा पहले था वैसा ही तीव्र है । पूज्य महाराजश्री की - प्रपने गुरुदेव की - प्रेरणा मुझे न मिली होती तो ग्राज यह लिखना प्रारंभ करने की मेरी हिम्मत होती या नही यह भी एक प्रश्न है ।
जो पुस्तके मैने पढी, उनमे कोई संस्कृत या प्राकृत भाषा मे लिखी हुई पुस्तके नही थी । जैन तत्त्वज्ञान का विपुल भडार इन दो भाषाओ मे संग्रहीत पडा है । उनकी सहायता से अग्रेजी, हिन्दी और गुजराती भाषाओ मे लिखी हुई बहुत सी पुस्तके मैं देख गया । संस्कृत और प्राकृत भाषायो पर अधिकार प्राप्त करने के लिये कोशिश करने की और इतना धीरज रखने की सुविधा तो थी ही नही ।
फिर भी मै पूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । जो कुछ भी समझ मे न आता था उसे समझने के लिये मै प्रत्यक्ष या पत्र द्वारा उनका मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । उन्होने अत्यन्त प्रेम, करुणा और उत्साह के साथ मुझे अपनाया और मेरा मार्गदर्शन करते रहे ।
अर्वाचीन भाषाओ मे जो कुछ भी लिखा गया है उसे देखकर पूज्य गुरुदेव को कम असतोष नही था । जब मै इन्दौर मे था तब उन्होने मेरे नाम एक पुस्तक भेजी थी ताकि मे उसका अध्ययन कर सकूं । इस सिलसिले में उन्होने मेरे नाम
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