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जो एक पत्र लिखा था उसका कुछ हिस्सा मै यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ
नामक पुस्तिका की तीसरी आवृत्ति में भेज रहा हूँ । केवल एक बार पढने पर हमे इस बात का पता लगेगा कि हमारे यहाँ स्याद्वाद पर जो साहित्य प्रकाशित होता है वह कितना अस्पष्ट अोर पढने वाले को उलझन मे डालने वाला है। फिर भी इस समस्त साहित्य मे 'स्याद्वाद' के सत्य विखरे पडे है जिनकी खोज करने के बाद एक ऐसे साहित्य का निर्माण होना चाहिये जो हमे ठोस मत्य की प्रतीति करवाये तथा पढने वालो के दिमाग मे स्वावाद के सिद्धान्तो की उपयोगिता का एक स्पष्ट चित्र अकित कर दे, इस बात की आवश्यकता भी तव आपको महसूस होगी।"
जब मै अमरीका और यूरोप की यात्रा कर रहा था तब मुझे इस प्रकार के साहित्य के निर्माण की आवश्यकता महसूस हुई थी और मेरे मन मे ये भाव जागृत हुए ही थे कि यथाशक्ति इस बारे मे कुछ कार्य कर । पूज्य गुरुदेव ने मेरी इस भावना को प्रोत्साहित किया और उस विषय मे कुछ कहने की मुझे प्रेरणा भी दी।
तत्पश्चात् सयोगवशात् अधिक समय तक मै गुरुदेव के सम्पर्क मे न रह सका। लेकिन उन्होने जो बीज वोया था वह तो मेरे मन मे ही निहित था और उसका विकास भी जारी था। मै इस विषय का अध्ययन तथा पठन यथामति वढाता ही रहा था।