________________
था कि मेरे पास इस विषय से सम्बन्धित वहुत सारी जानकारी है। लेकिन यहा आने के बाद जब कुछ जैन मुनिराजो, पन्यास जी महाराजो तथा आचार्य भगवन्तो से मेरी मुलाकात हुई, उन लोगो से कुछ तत्त्व चर्चा हुई और उनकी ओर से मुझे जो थोडी-यो जानकारी प्राप्त हुई उसे देखने और समझ लेने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि जेन तत्त्वज्ञान सम्बन्धी मेरा अपना ज्ञान, सिन्धु के बिन्दु के भो एक अणु के समान था। विन्दु के उस अणु से मोहित होकर मै मदारी की डुगडुगी की तरह जगत के बहुत से लोगो को मोहित करने के उद्देश से निकल पडा था, इस बात का ज्ञान होते ही मेरे मोठ मानो सिल गये, सस्कृत मे लिखे हुए एक प्राचीन कथन का मुझे सस्मरण हो पाया। उस कथन का तात्पर्य
अहो लघु ज्ञानी मूर्ख मन मे गर्व धरता, सब कुछ जानता हूँ, खुद को यो समझता, किन्तु परिचय मिला जब सत जन का, खुली आँखे तब तो निज को मूर्ख गिनता।
[ भर्तृहरि नीति शतक] लेकिन यह ज्ञान होने के फल स्वरूप मुझे तो लाभ हो हुआ । खोज करने पर एक 'गुरुदेव' 'सुगुरु' से मेरी भेट हुई। उन्होने मेरा जो मार्ग-दर्शन किया, उसके अनुसार मै कार्य करता रहा । उन्होने मुझे जो पुस्तके दी वे तथा जिन पुस्तको की उन्होने सिफारिश की, वे सभी मैने पढी।