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॥ श्री जिनेन्द्राय नम ॥
अनेकान्त और स्याद्वाद
प्रकरण १
- प्रवेश
"श्रापका यह 'अनेकांतवाद' एक वडा भ्रम है भ्रम | एक ही वस्तु मे परस्पर विरोधी गुण धर्मो का होना भला कैसे सभव है ? यह तो शब्दो का निरर्थक प्राडम्वर मात्र है । यह केवल बुद्धिचातुर्य का विलास है । विप और अमृत का एक साथ रहना असंभव है, यह बात तो एक छोटा-सा बालक भी ग्रासानी से समझ सकता है ! फिर भला । विद्वान् श्रीर बुद्धिशाली व्यक्तियो को 'अनेकातवाद' को स्वीकार करने पर किस तरह राजी कर सकते है
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अमरीका के न्यूयार्क शहर के एक आलीशान हॉटल मे मुझसे मिलने आये हुए एक विद्वान् मित्र ने जब बातचीत के दौरान मे इस प्रकार की आलोचना की तब मेरे चेहरे पर मानद और दुख की मिश्रित स्मित- रेखाए अकित हो गई ।
हम दोनो तत्त्वज्ञान के वारे मे चर्चा कर रहे थे । मेरे ये मित्र वडे बुद्धिशाली और जिज्ञासावृत्ति वाले थे । तत्त्वज्ञान के बारे मे चर्चा करते समय जब मेने जैन तत्त्वज्ञान का उल्लेख