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खंडन-मंडन पिछले पृष्ठो मे जो कुछ लिखा गया है, उसका उद्देश्य जैनधर्म और जैन तत्त्वज्ञान के मुख्य मुख्य प्राचारो तथा विचागे ( सिद्धान्तो ) की सक्षिप्त जानकारी देना ही है । किमो एक का खडन या दूसरे का मडन करने के उद्देश्य से कुछ नहीं लिखा है।
यह सब किसी भी प्रकार का वादविवाद खडा करने या उसमें पड़ने के उद्देश्य से नही बल्कि केवल उपयोगी जानकारी का प्रचार करने के हेतु ही लिखा गया है ।
स्याद्वाद सिद्धान्त पूर्णतया मध्यस्थता का सिद्धान्त है। मध्यस्थता-तटस्थवृत्ति-रखे विना इस सिद्धान्त को समझना सभव नही-ऐमा भी पहले ही कहा जा चुका है ।
स्याद्वाद की मध्यस्थता एक विशिष्ट प्रकार की है। इसमे मिथ्या या कात्पनिक तटस्थवृत्ति नहीं है । सत्य के साथ अन्याय न हो और असत्य का समर्थन न हो-यही समस्त स्याद्वाद सिद्धान्त का हृदय ( रहस्य ) है, मेरुदण्डHeart & Backbone है । इसमे अन्य किसी भी मतमतान्तर से द्वेष नही है। श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज ने इम विपय मे एक स्थान पर लिखा है कि - ___अन्य शास्त्र के प्रति दृप रखना भी उचित नहीं है। वह जो कुछ कहे उसके विपय का भी यत्नत शोधन करना चाहिए। उसमे जो कुछ सद्वचन हे वह सव, प्रवचन सेद्वादशागी से-भिन्न नहीं है।"
ऊपर के उद्धरण से स्यावाद की गभीरता तथा स्याद्वादो को सच्ची मध्यस्थवृत्ति स्पष्ट होती है । स्याद्वाद के