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मत मे कोई भी वचन स्वय प्रमाणरूप भी नही है और प्रमाणरूप भी नही है । कोई वचन स्वशास्त्र का हो चाहे पर शास्त्र का, उसके विपय के विश्लेपण - परिशोधन - से ही वह प्रमारण रूप या ग्रप्रमाण रूप सिद्ध होता है |
जो वाक्य प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाणो से सुस्थापित हो वह प्रमाण रूप है । प्रमारण के साथ जो मेल न खाता हो वह अमाप है । किसी भी एक धर्म को लक्ष्य में रख कर कहा गया वाक्य उस धर्म को लक्ष्य मे रख कर सत्य है, जब उसी वाक्य का उपयोग अन्य धर्म को लक्ष्य में रख कर या अन्य धर्मो का निरस्कार कर के किया जाय तब वह ग्रसत्य है । यह बात नय और सप्त-भगी समझने के बाद आसानी से समझ मे आती है ।
खडन मंडन ग्रर्थात् वादविवाद । इस वादविवाद का उद्देश्य वडा पवित्र है । मत भेद तो इस विश्व का अनिवार्य श्रग है । जैसे मनुष्य के पास कर्म के अनुसार सम्पत्ति का प्रमाण न्यूनाधिक होता है, वैसे ही बुद्धि, तथा ग्रहण गति भो न्यूनाधिक प्रमाण में होती है । इसलिए सशय श्रौर मतभेद तो हमेशा रहेंगे। परन्तु जब कोई दो व्यक्ति किसी विषय पर चर्चा करने ग्रामने सामने बैठे तो उसका परिणाम विग्रह मे नही बल्कि सधि मे ग्राना चाहिए। यह जरूरी नही कि यह सचि एक मति की सहमति की ही हो, भिन्नमति की भी सधि हो सकती है ।
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दुनियाँ के बुद्धिरान् लोगो ने इस विषय मे एक सुन्दर वात कही, है "दो मनुष्य जब अपने मतभेदा की चर्चा मत्रणा करने बैठते है तो उससे दोनो की बुद्धि तथा समझने की शक्ति