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३१७ 'नमस्कार भाव' से तात्पर्य है नम्रता' ।
'नम्रता' अर्थात् 'अहभाव का सपूर्ण विसर्जन ।' यदि अहभाव का विसर्जन न हो तो नम्मता नही नाती । यदि नम्रता न जगे तो 'नमस्कार-भाव' प्रकट नहीं होता। 'नमस्कार-भाव प्रकट हुए विना क्षमा करने की तथा क्षमा मांगने की वृत्ति उत्पन्न नहीं होती। क्षमा करने और क्षमा मांगने की वृत्ति उत्पन्न हुए बिना प्राणीमात्र के प्रति मैत्री-भाव पैदा नहीं होता, प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव के विना यह भावना नही आ सकती कि 'मुझे किसी से वैर-भाव नही है । ' इसमे से यदि कुछ भी हम से न हो सके तो हमारे-आत्मा के-विकास की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढा जा सकता। यदि प्रागे न वढा जा सके तो कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
यहाँ हम सुख की जो बाते कर रहे है सो 'आत्मसमदर्शिताभाव' को लक्ष्य मे रखकर कर रहे हैं। हमने देखा कि जिससे अन्य किसी को जरा भी दुख पहुंचे वह हमारे लिये सुख का कारण कभी बन ही नहीं सकता । इसलिए स्वभावत हमारा अपने लिए सुख प्राप्त करने का प्रयत्न हमे जीव-मात्र का-समस्त जगत का-कल्याण चाहने की ओर खीच ले जाएगा।
यदि अहभाव का विसर्जन हो जाय, नम्रता जगे, नमस्कार भाव प्रकट हो, क्षमा वृत्ति उत्पन्न हो, मैत्रीभाव प्रकट हो, वैर भाव नष्ट हो जाय तो उसके सहजफल-स्वरूप हमारे हृदय मे 'शिवमस्तु सर्वजगत' (समस्त विश्व का कल्याण हो) की भावना अवश्य जाग्रत होगी । यदि यह भावना जाग्रत न हो तो हमे समझना चाहिए कि ऊपर बताये हुये मे से कुछ भी