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न माने तो भी श्राखिरकार ऐसा कोई भी प्रयत्न हमारे लिये 'दुख' मे ही परिणत होगा । यदि हम सुख ही चाहते हो तो इस तथ्य को स्वीकार किये बिना कोई चारा नही है । हमे यह बात हमारे एक परम कर्तव्य की याद दिलाती है । इस परम पुनीत कर्तव्य को जैन- शास्त्रकारो से चार वाक्यों मे प्रस्तुत किया है—
१ 'खामेमि सव्वजीवे'
२ 'सव्वे जीवा खमतु में' ३ 'मित्ती मे सव्वभूएस'
४ वेर मज्झन केराई ।
इन चार वाक्यो का अर्थ निम्नानुसार है
१
मै सब जीवो से क्षमा माँगता हूँ, सव को क्षमा
करता हूँ ।
२ सव जीव मुझे क्षमा करे ।
३ जीवमात्र के साथ मुझे मैत्री भाव है ।
४ मुझे किसी के साथ वैर भाव नही है ।
अपने विकास की इच्छा रखने वाले किसी भी आत्मा को इन चार वाक्यो से ही प्रारंभ करना होगा, इन चारो वाक्यों के साथ एकत्व - समरसता का अनुभव करना होगा ।
समरसता प्रकट करने के लिए आवश्यक एक पूर्व भूमिका होती है जिसका नाम है 'कृतज्ञता भाव' । 'कृतज्ञता भाव' अर्थात् जिन जिन लोगो ने हम पर उपकार किये हो उन सबके प्रति आभार की भावना । यह आभार प्रकट करने का साधन है, 'नमस्कार - भाव' |