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हमारे भीतर विकसित नही हुआ है और यदि हमे ऐसा लगता हो कि इसमे से कुछ हममे है तो वह केवल भ्राति ही होनी चाहिए ।
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यहाँ कोई पूछेगा कि "उस शिवमस्तु सर्वजगत' की क्या आवश्यकता हे ? प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव रखे, और किसी के प्रति वैर भाव न रखे क्या इतना काफी नही है इन दो वस्तुग्रो से हमारे भीतर तटस्य भाव तो प्रकट होती ही है । तटस्थ भाव धारण करके हम अपने कल्याण की श्रात्मलक्षी प्रवृत्ति मे मग्न रहे तो क्या हर्ज है ?"
इसका उत्तर देना तो मरल है । सच्चा और वास्तविक तटस्थ भाव तो जीव मात्र के कत्याण की भावना मे है । इस बात को भूल कर यदि हम केवल अपना अपने श्रात्मा का कल्याण- साधन करने की प्रवृत्ति लेकर ही बैठ जायें तो हम इससे एक ओर स्वार्थ श्रीर दूसरी चोर 'उपेक्षा भाव' इस तरह दो प्रकार के दोपो मे पड जाँय, ऐसी सम्भावना है । इस प्रकार की उपेक्षा भावयुक्त तटस्थता मे से द्वेष का ग्राविर्भाव होने की भी संभावना है ।
उदाहरणत हम जिस मकान मे रहते हो उसके बाहर के आँगन को अपने मे समानेवाले गली के चौगान मे भावुक लोगो को एक समुदाय श्रावणमास में भजन कीर्तन के हेतु प्रति दिन शामको एकत्र वेठता हो और उस समय हमारे बाहर जाने या घर आने का योग हो तव यदि हम कल्याण कामना के बदले केवल तटस्थ भाव लिये फिरते हो तो चूकि ये लोग हमारे मार्ग के अवरोधक होने से हमे बाधा पहुँचाते है, इसलिये उनके प्रति रोप या द्वेषभाव उत्पन्न होते देर नही लगेगी ।