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________________ ३१६ हाथी और बरगोग का उदाहरण लीजिए। साथ ही पैरो तले पाती हुई चीटी की बात भी व्यान में रखिये। उस खरगोन और वीटो को पैरो तले कुचले जाने से बचाने के लिए यदि केवल 'मुझे कर्मवचन होगा' ऐसा भाव ही मन में हो तो उन समय पैर को ऊपर अवर मे उठाये रखने में पड़ने वाला न्ट सभवन में दुन्यांन मे वल देगा। इसके बदले उक्त दोनो प्राणियो के कल्याण को तथा उन्हें कष्ट न पहुंचाने की भावना से हम जो तकलीफ नहेगे वह हने शुभध्यान की ओर ले जाएगी । कप्ट जन्य भयभीतता में कभी शुभधान नहीं था सकता। यह बात बहुत ध्यान में रखने योग्य है। आत्मा के विकासपय में यह एक अत्यन्त आवश्यक जान है । अत यदि हम मुजी होना चाहते हो, अपने प्रात्मा को कन्याण मार्ग की पगडण्डी पर चढाना चाहते हो, तो उसका प्रारम्भ जीव मात्र का निव-कल्याण चाहने से हो सकेगा। यह बात्मा के विकासक्रम की एक परमावश्यक पगडण्डी है । इतनी प्रास्ताविक विवेचना के पश्चात् 'मारे जगत का कल्याण हो' ऐसी मंगल भावना को अपने हृदय में प्रतिष्टित करके अव म आत्मा के विषय में तात्त्विक विवेचना की ओर मुडते है। इस विषय मे जैन दार्गनिको द्वारा प्रतिपादित नवतत्त्व'के विषय में जानकारी प्राप्त करना बहुत ही आनन्द प्रद एव उपयोगी होगा। इन नौ तत्त्वो के नाम निम्नानुसार है। १जीव २ अजोव ३ पुण्य
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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