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जाता है | परन्तु यह 'नवकारमत्र' भौतिक जगत की वर्णमाला से लाखो गुनी अधिक शक्ति रखने वाला मत्र है । इस बात का ज्ञान बाद मे चलकर विचार करने से तथा योग्य गुरु के मार्गदर्शन से प्राप्त होता है ।
यह एक स्वयसिद्ध मत्राधिराज है | यह मंत्र साधक को सुधड बना सकता है, साधन को शुद्ध वना सकता है, और साध्य का भी स्वयं ज्ञान कराता है । परन्तु ऐसा कव हो सकता है ? इस मंत्र मे जो 'सर्वसिद्धिप्रदायकता' है वह कब प्रकट हो सकती है ?
इसकी पहली शर्त यह है कि 'हम श्रद्धापूर्वक प्रयत्न के द्वारा, इस मंत्र मे जो सर्वसिद्धिप्रदायकता का अपूर्व भडार भरा हुआ है उसकी बौद्धिक समझ से सुसज्जित हो ।' अव हम इस मंत्र के शब्द - शरीर का निरीक्षण करे - "नमो अरिहताण
नमो सिद्धाण
नमो आयरियाण
नमो उवज्झायाण
नमो लोए सब्बसाहूण एसो पचनमुक्कारो
सव्वपावप्पासरगो
मंगलारण च सव्वेसि
पढ महवइ मंगल ।"
इन वाक्यो मे प्रथम दृष्टया क्या कोई असाधारणता दिखाई देती है ? पहले पाँच वाक्यो- पदो मे 'अरिहत, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय, और सर्वसाधु' इन पाच 'परमेष्ठियो' को नमस्कार