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चाहिए । मत्र ऐसा होना चाहिए जो स्वय 'सर्वसिद्धिप्रदायक' होने के उपरात साधक को मानसिक एव आध्यात्मिक भावनाओ को भी प्रकट करने और प्रवल बनाने की शक्ति रखता हो।
यह मत्र साधक की साधकावस्था की त्रुटियो को स्वयं दूर करने की शक्ति रखने वाला, साधन की अपवित्रता को स्वयं पवित्र बनाने में समर्थ, तथा साध्य (हेतु) को भी स्वयं शुद्ध तथा सुमंगल बनाने में शक्तिमान् होना चाहिए । यह मंत्र ऐसा होना चाहिए जो स्वयं 'पारसमणि' के समान क्षमता रखता हो, स्पर्श मात्र से सोसे को कचन बना दे, और केवल अपनी ही शक्ति से 'साधक, साधन और साध्य'-तीनो का सुनियंत्रण कर सके-ऐसा 'स्वयसिद्ध एवं स्वयसंचालक' हो ।
ऐसे सुयोग्य मत्रो मे से श्रेष्ठ मत्र इस जगत यदि कोई हो तो वह एक "नमस्कारमहामत्र" है । इस महामंत्र को 'मंत्राधिराज" का मंगल विरुद प्राप्त हैं।
सीधे-सादे शब्द और सरल अर्थ वताने वाला यह मत्र सामान्य मनुष्य पर प्रथम दृष्टि मे बहुत बडा या असाधारण प्रभाव नहीं डालता। ___ छोटा सा वालक जब पहलेपहल स्कूल मे पदार्पण करता है तव प्रारभ मे उसे वर्णमाला सिखाई जाती है। वर्णमाला को अच्छी तरह सीख लेने के बाद जवानी मे या बडी उम्र मे उस वर्णमाला को कौन याद करता है ? फिर भी यह कौन नही जानता कि अप्रतिम विद्वत्ता की नीव वर्णमाणा हो है ।
जैनो के वालको को धार्मिक शिक्षा देने का प्रारभ इस 'नमस्कारमहामत्र' से होता है। उस समय इस मत्र को "नवकार मत्र' के unconspicuous अप्रसिद्ध नाम से पहचाना