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कर्मविषयक पिछले प्रकरण मे हम मुख्य आठ कर्मो के विपय मे कह प्राये है | इनमे से पहले चार कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, योर अन्तराय अशुभ परिणाम वाले होने से सभी पाप कर्म है । अन्तिम चार कर्म - नाम, ग्रायुष्य, गोत्र और वेदनीय - ' शुभाशुभ' हे ग्रर्थात् इनमे से हर एक मे कोई शुभ तो कोई शुभ कर्म है, अर्थात् प्रत्येक मे पुण्य याने शुभ, तथा पाप याने शुभ- ऐसे दोनो प्रकार के कर्म परिणाम होते है । भौतिक सुख और दुख के ग्राधार क्रमश सत्कर्म तथा दुष्कृत्य है ।
पुण्य और पाप रूपी कर्म कर्मवद्ध श्रात्मा के लिये उन्नति और अधोगति की दो विरुद्ध दिशाओ मे जाने वाली पगडडियो के समान है । श्रात्मा मध्यवर्ती स्थल ( Centre) पर है | वह पाप-पुण्य की पगडडियो के द्वारा अवनति - उन्नति की ओर प्रयाण करता है । पापकर्मो से ग्रात्मा अधोगति की प्रोर ढकेला जाता है, और पुण्यकर्म से ग्रात्मा अपनी मुक्ति के पथ पर प्रयाण शुरु करता है । तात्त्विक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनो आत्मा के ससार मे परिभ्रमण के कारण है, परन्तु आत्मा को मोक्षमार्ग की ओर गति करने के लिये आवश्यक योग्य सामग्री प्राप्त करने के हेतु पुण्य कर्मो का आश्रय लेकर ही प्रारम्भ करना पडता है ।
५) श्रास्तव
ऊपर हम पुण्य और पापरूप कर्मों की बात कर रहे थे, उनसे पुण्य तथा पाप के उपार्जन का मुख्य प्रयोजक आत्मा का मनोव्यापार है । मन के इस व्यापार को वचन और कार्यो के द्वारा होने वाले कर्म पुष्ट करते है । इस प्रकार मन वचन