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तत्त्व' मे होता है, जिनमे जीवत्व - चैतन्य नही होता ।
पहले हम जिन छ द्रव्यो का वर्णन कर चुके हैं उनमे से जीव द्रव्य उपर्युक्त जीव तत्त्व मे आ गया । बाकी के पाँचो द्रव्य-धर्म, धर्म, पुद्गल, आकाश तथा काल अजीव तत्त्व के अन्तर्गत है । जीव-का- आत्मा का - इन पांचो द्रव्यो के साथ सम्बन्व है, और जीव समेत छहो द्रव्य ही विश्व है । ये छः द्रव्य विश्व की रचनाओ के ग्राधारभूत है । जीव और जीव के― चेतन तथा जड़ के सयोग से ही जगत चल रहा है । दूसरे शब्दो मे यो कह सकते है कि जीव और जीव का मयोग ही ससार है |
३) पुण्य ४) पाप.
तात्त्विक अर्थ में जिन्हे 'धर्म' चोर 'धर्म' नामक दो द्रव्य कहा गया है वे पुण्य और पाप नही है । वे दो तो पदार्थ है और वस्तुओ को गति करने में सहायक द्रव्य को 'धर्म' तथा स्थिति करने में सहायक द्रव्य को 'अवर्म' नाम दिया गया है ।
व्यावहारिक अर्थ मे हम पुण्य और पाप को क्रमश 'धर्माचरण तथा ग्रधर्माचरण' कह सकते है । परन्तु जव 'नवतत्त्व ' के सिलसिले में तीसरे ओर चौथे तत्त्वो को 'पुण्य और पाप' के नाम से पुकारा जाता है तब उसका तात्पर्य हमे कर्म के पुद्गलो से बनने वाले पुण्य कर्म और पाप कर्म समझना चाहिये ।
कर्म करते
कराने मे
दुख की सामग्री
हम जो शुभ कर्म करते हैं वे 'पुण्य' और बुरे है वे 'पाप' है । पुण्य कर्म हमे मुख के साधन प्राप्त कारणभूत है, और पाप कर्म हमारे लेकर उपस्थित होते है ।
लिये