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कारण भी होना चाहिए। यह कारण है जैन तत्त्वज्ञान की विशिष्टता ।
प्राचीनता की दृष्टि से तो जेन दार्शनिक लोग ऐसा दावा करते है कि जैन धर्म, अनादि, शाश्वत श्रौर प्रविचल हे । लेकिन केवल इसी कारण को लक्ष्य में रखकर वह विशिष्ट प्रोर श्रेष्ठ है ऐसा दावा नही किया गया। इसकी विशिष्टता एव श्रेष्ठता तो इसका जो तत्त्वज्ञान हे उसमे छिपी हुई है ।
जगत् के तमाम तत्त्वज्ञानो मे जिसने ग्रनोला श्रीर विशिष्ट स्थान प्राप्त किया हे गौर जो दिग्विजयी हे ऐसा यह तत्वज्ञान अनेकातवाद के नाम से प्रसिद्ध है, यह बात तो हम पहले कह चुके हैं । इस तत्त्वज्ञान की एक विशेष महत्व की बात उसकी तर्कपद्धति है । यह तर्कपद्धति ऐसी सपूर्ण और प्रमाणयुक्त है कि कही से भी अँगुली घुसाना असंभव है । जगत् के जितने भी विद्वान इसके परिचय में प्राते है वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते है | सर्वश्री हर्मन जेकोबी, डॉ० स्टीनकोनो, डॉ० टेसीटोरी, डॉ० पारोल्ड ग्रौर बर्नार्ड शॉ जैसे पाश्चात्य देशो के विद्वान भी इस तत्त्वज्ञान पर मुग्ध हो गये है ।
तत्त्वज्ञान की उच्च लोकोत्तर भूमिका पर यह अनेकातवाद शायद कठिन और अटपटा दिखाई पडेगा लेकिन साधारण मनुष्यो के सदैव के जीवन मे और विचारशील बर्ताव मे तो यह " वाद" घर करके बैठा ही है। ऊपर हमने कपडे की खरीद से सम्बन्धित जो उदाहरण दिया है उसमे अनेकातवाद की छाया नही तो और क्या है ?