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४१२ को, अपितु देवो तथा दानवो को भी आकर्षित करता है। इससे सभी मनोरथपूर्ण होते है । यह मत्र तमाम विघ्नो को दूर करता है । इस मत्र के प्रभाव से सब प्रकार की बाधाएं तथा आपत्तियाँ (उपसर्ग) नष्ट होती है । यह मत्र जगल मे मगल करने वाला, चिंतामणि रत्न के समान, कल्पवृक्ष और कामघेनु से अधिक अभीष्टदायक और शून्य मे से सृष्टि वना देने वाला है । इस मत्र के सेवन से सब प्रकार के पाप नष्ट होते है । यह मत्र इह लोक और परलोक मे मुख सामग्री और अपूर्व ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति कराता है । इस मत्र के प्रभाव से निकाचित और निविड़ कर्म की निर्जरा होती है । जन्म-जन्म के पाप इसके पावक जापरूपी जल से धुल जाते है, आत्मा दुर्गति के घोर दुखो से बच जाता है । कर्म के वन्धन से मुक्ति पाकर शुद्ध निर्मल और पवित्र बना हुआ आत्मा इस मत्र के प्रभाव से ही अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट करता है और केवलज्ञान प्राप्त करता है।
"प्रात काल इसका स्मरण करने से सारा दिन परममगलमय तथा आनन्दकारो वनता है । जन्म लेते हुए बालक को जन्म के समय यदि यह मत्र सुनाया जाय तो उसका समस्त जीवन परम सफल तथा यगस्वी वनता है । पापात्मा को उसकी मृत्यु के समय सुनाया जाय तो वह सद्गति पाता है । "यह मत्र चीटी को कन, हाथी को मन, दुखी को सुख, सुखी को सन्तोष और सन्तोपी को परम सामर्थ्य देता है । जिन-जिन को तीव्र अभिलापा जगे उन सवको सब प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करने की उच्च और उत्कृष्ट गक्ति इस स्वयं सिद्धमंत्र मे है । यह सर्वसिद्धिप्रदायक मत्राधिराज है, मत्रशिरोमणि है।