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________________ ३०६ क्रिया छूट जाने के बाद तो हिसादि मिथ्या क्रियाएँ ही हाथ मे रहती है, और इन मिथ्या क्रियाश्रो मे शुभ परिणाम वाले भाव जाग्रत करने की कोई शक्ति नही है । भाव का जाग्रत होना कोई साधारण या छोटी सी बात नही है । इसके लिए बहुत समझदारी के साथ सम्यक् क्रियाओ के बहुत बहुत प्रयत्न करने पडते है । त यदि द्रव्य-क्रिया के समय भाव जाग्रत न होता हो तो उस 'ग्रजाग्रति' के प्रति 'जाग्रत' रह कर और भाव जगाने के उद्देश्य को जीवित रख कर क्रियाएँ जारी रखने में ही फायदा है । इससे किसी सुभग क्षरण मे भाव जाग्रत हो जाएगा । यदि प्रपूर्व भाव प्राप्त हो जाएगा तो हमे अपनी की हुई असख्य द्रव्य क्रियाओ की निरकता के बाद पूर्व सार्थकता अवश्य मिलेगी । इसके लिए इतनी ही शर्त है कि हमे आवश्यक समझ और भाव का सवेदन प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । हम मे भाव जाग्रत नही होता, इस तथ्य को अपने प्रयत्न की त्रुटि मान कर हमे अपनी समस्त शक्तियो को इसके लिए प्रयुक्त करना चाहिए । यदि हम इस बात की उपेक्षा करेंगे तो इस प्रकार की शुष्क क्रियाएँ सदा के लिए वध्या ही रहेगी । ..हमे इस कार्य के लिए अनेक श्रालम्बनो की श्रावश्यकता होती है। उनमे मुख्य आलम्बन 'सद्गुरु' का है । हमे सुदेव और सुगुरु-इन दोनो को परमात्मा मानना है । एक दृष्टि से सापेक्षभाव से, सद्गुरु तो 'प्रत्यक्ष परमात्मा' है । समुद्र मे अगाध अपार जल है, परन्तु जब श्राग लगती है तब हमारे आँगन का कुआँ या हमारे गाँव या शहर का वॉटर वर्क्स काम आता है । ऋत यदि हम निरजन निराकार वीतराग -
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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