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क्रिया छूट जाने के बाद तो हिसादि मिथ्या क्रियाएँ ही हाथ मे रहती है, और इन मिथ्या क्रियाश्रो मे शुभ परिणाम वाले भाव जाग्रत करने की कोई शक्ति नही है ।
भाव का जाग्रत होना कोई साधारण या छोटी सी बात नही है । इसके लिए बहुत समझदारी के साथ सम्यक् क्रियाओ के बहुत बहुत प्रयत्न करने पडते है । त यदि द्रव्य-क्रिया के समय भाव जाग्रत न होता हो तो उस 'ग्रजाग्रति' के प्रति 'जाग्रत' रह कर और भाव जगाने के उद्देश्य को जीवित रख कर क्रियाएँ जारी रखने में ही फायदा है । इससे किसी सुभग क्षरण मे भाव जाग्रत हो जाएगा । यदि प्रपूर्व भाव प्राप्त हो जाएगा तो हमे अपनी की हुई असख्य द्रव्य क्रियाओ की निरकता के बाद पूर्व सार्थकता अवश्य मिलेगी । इसके लिए इतनी ही शर्त है कि हमे आवश्यक समझ और भाव का सवेदन प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । हम मे भाव जाग्रत नही होता, इस तथ्य को अपने प्रयत्न की त्रुटि मान कर हमे अपनी समस्त शक्तियो को इसके लिए प्रयुक्त करना चाहिए । यदि हम इस बात की उपेक्षा करेंगे तो इस प्रकार की शुष्क क्रियाएँ सदा के लिए वध्या ही रहेगी ।
..हमे इस कार्य के लिए अनेक श्रालम्बनो की श्रावश्यकता होती है। उनमे मुख्य आलम्बन 'सद्गुरु' का है । हमे सुदेव और सुगुरु-इन दोनो को परमात्मा मानना है । एक दृष्टि से सापेक्षभाव से, सद्गुरु तो 'प्रत्यक्ष परमात्मा' है । समुद्र मे अगाध अपार जल है, परन्तु जब श्राग लगती है तब हमारे आँगन का कुआँ या हमारे गाँव या शहर का वॉटर वर्क्स काम आता है । ऋत यदि हम निरजन निराकार वीतराग
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