________________
३०५
मात्र 'तथ्य -संग्रह या जानकारी का भडार' ही वन जाता है । वह शायद दूसरे को भले उपयोगी हो, उसके खुद के लिए निरर्थक है, वृया है । जब इस ज्ञान को प्राचरण में रखा जाय तब भी द्रव्य ( वाह्य ) और भाव ( प्रान्तरिक) का परस्पर सम्बन्ध रहता है | भाव से सुक्रिया के लिए प्रेरणा मिलती है, द्रव्य क्रिया से भाव -क्रिया जाग्रत होती है । द्रव्य -क्रिया के विना भाव क्रिया पैदा नही होती, और भाव -क्रिया के विना द्रव्य - क्रिया फलदायक नही होती ।
यदि वाह्य क्रिया शुष्क, जड, नासमझ और केवल भाव शून्य आदत के समान ही हो तो वह मुक्ति-मार्ग के लिए निरर्थक सिद्ध होती हे । व्यवहार में भी यही बात है | जिस काम में मन नही लगता उस काम से कोई लाभ नहीं होता । सामाजिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पाठ, अव्ययन, भक्ति करते समय स्तवन (भजन) गाना आदि सव द्रव्य क्रिया है ।' इनका प्रयोजन भाव जाग्रत करके चित्तवृत्ति को व्यवस्थित एव समभावशील बनाना है । ये सब द्रव्य क्रियाएँ करते समय यदि इस बात की समझ न हो कि "मैं यह क्या कर रहा हूँ, किस लिए कर रहा हूँ," और इसके अतिरिक्त मन भी अन्यत्र भटकता हो, तो ऐसी क्रियाएँ निरर्थक सिद्ध होती है ।
इसीलिए कहा गया है कि कोई भी कार्य, चाहे वह मोक्षप्राप्ति का हो चाहे केले की पकौडियाँ तलने का हो, ज्ञान और क्रिया के सामजस्य के बिना सिद्ध नही होता ।
यदि बाह्य क्रिया करते समय भाव जाग्रत न होता हो तो इस कारण से क्रिया छोड देने की जरूरत नही है | यदि छोड दे तो उसका भयानक परिणाम होता है, क्योकि द्रव्य