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जेन दार्शनिको ने यह बात भली भाँति समझाने के लिए क्रिया के दो भेद बताए है । एक 'सम्यक्' (ग्रर्थात् सच्ची ) क्रिया और दूसरी मिथ्या ( अर्थात् झूठी ) क्रिया । सच्ची ग्रात्मदृष्टि की बुद्धि-पूर्वक जो क्रिया होती हे उसे सम्यक् क्रिया कहते है, और उससे विपरीत क्रिया को मिथ्या क्रिया ।
यहाँ भी ज्ञान और क्रिया एक दूसरे के पूरक है । क्रिया रहित ज्ञान जमीन मे गडे हुए खजाने की तरह निरर्थक है, फिर वह चाहे कितना ही मूल्यवान् क्यो न हो । बिना ज्ञान के बिना सच्ची समझ के - क्रिया भी निष्फल है । कोई घर के आँगन मे गमले में तुलसी का पौधा लगा कर गमले की मिट्टी मे पानी डालने के बदले घी डाला करे तो क्या होगा ? यह मान कर कि पानी से घी बहुत अधिक पोषक है, और ग्रार्थिक दृष्टि से स्वय बहुत धनवान होने के कारण इस तरह घी का व्यय करने में समर्थ है, तुलसी के पौधे को पानी के बदले घी पिलाने लगे तो उसमे से क्या उगेगा ? ज्ञान रहित क्रिया भी इसी तरह को समझिये ।
सम्यक् क्रिया से पवित्र ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार ग्रादि ग्राचारो के पालन का समावेश होता है । इस क्रिया के दो भेद है - द्रव्य क्रिया और भावक्रिया । इनमे से द्रव्य - क्रिया ग्राचार स्वरूप है, और भावक्रिया आचार तथा विचार - उभय स्वरूप हे । यद्यपि दोनो का महत्त्व एक सा है तथापि सापेक्ष दृष्टि से भाव-क्रिया का जो फल है वही मुख्य हैं ।
तत्त्वज्ञान को जानने वाला व्यक्ति प्रचार में-- धर्म के ग्राचरण मे—शून्य मात्र को लेकर घूमता हो तो उसका ज्ञान