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की निया एक साथ ही चलती है। यह तो हम जानते ही हैं कि जब हम भाषण देते है । तव हमारी बोलने की क्रिया और श्रोताजनो की सुनने की क्रिया-यो द्विपक्षी क्रिया चलती है । उस समय ही बोलने वाले की भावक्रिया कर्म के पुद्गलो को अपनी ओर खीचती होती है, अोर सुनने वाले के मन पर पड़ने वाला प्रभाव रूपी क्रिया भी कर्म के पुद्गलो को अपनी ओर भावपित करती है। अनः बोलने वाले और नुनने वाले इन दोनो पक्षो के लिए फिर कर्म के पुद्गलो को क्रिया की अपेक्षा से द्विपक्षी क्रिया चलती रहती है।
यहाँ विपतः सनझने योग्य बात यह है कि एक ही व्याख्यान मे एक ही बात करते हुए जो वाक्य बोले जाते है, उनके द्वारा सुनने वाले की सुनने की क्रिया से कर्म के जो पुद्गल खिंच कर पाते है वे एक ही प्रकार के नहीं होते। उदाहरणार्थ-किनी सभा मे जव वक्ता किसी समाजविरोधी तत्त्व के विषय मे बात करता है तव एक श्रोता उससे दुखित होकर ऐसी भावना रखता हैं कि हे प्रभु इसे सद्बुद्धि दे, और दूसरा उन वात मे तमतमा उठता है और ऐसा विचार करता है कि 'इसका सत्यानाग कर देना चाहिए, इसे जडमल से उखाड़ लेना चाहिए ।' उन दोनो श्रोताओं के मन में उठने वाले ये दोनो प्रकार के भाव कर्म के भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलो को खीच लाते है, और उन दोनो की कर्म पुद्गल रूप जो क्रिया होती है वह अलग अलग तरह की होती है। इसमे ऐसा भी होता है कि एक ही वाक्य सुन कर एक मनुष्य के कर्म पुद्गलो का 'वध' होता हो, जव कि दूसरे के कर्म पूद्गलो का क्षय भी होता हो।