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अव कर्म के विषय पर पुन आते हैं। हमने देखा कि केन्स्टीन को पैदा करने वाला उक्त वैज्ञानिक तो मर गया, पर अपने ही बनाये हुए 'यत्र-मानव' का तो वह नाश नही कर सका । आत्मा के लिए ऐसी बात नही है । कर्म रूपी जिस फे केन्स्टीन को स्वय आत्मा ने अपने कर्मो द्वारा पैदा किया है उसका विनाश-क्षय भी प्रात्मा कर सकता है । एक खास गौर करने और याद रखने जैसी बात यह है कि ग्रात्मा जब मनुष्य शरीर मे हो तभी कर सकता है। एकेन्द्रिय से लगाकर तिर्यचपचेन्द्रिय तक के गरीरो मे आत्मा की यह शक्ति पूर्णतया प्रकट नहीं होती । मानव-भव को छोड कर प्रात्मा के अन्य भवो मे कर्म के आवरण आत्मा की इस शक्ति को प्रकट नहीं होने देते।
अत एव जहाँ तक मानवभव का, मनुष्य-शरीर का, सम्बन्ध है, प्रात्मा के परिभ्रमण में प्राप्त होने वाली अवस्थाम्रो मे यह सर्वोच्च स्थिति है । स्वर्गलोक मे या वैमानिक-लोक मे देव वन कर गया हुआ आत्मा वहाँ अपनी मुक्ति के लिए उत्कृष्ट उद्यम नहीं कर सकता । उस आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए मानव-शरीर मे आना ही पड़ता है। मनुष्य-देह के विना आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता। __ यह मानव-देह का-मनुष्य-भव का-उज्जवल पक्ष है, परन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। जिस तरह मानव-शरीर कर्मो को छोडने के लिए अात्मा का उत्तमोत्तम साधन है, उसी तरह दूसरी ओर आत्मा को नरक मे ले जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी इसी मानवभव मे अधिक होती है। अधिक से अधिक कर्मछेदन की तरह अधिक से अधिक कर्म-बन्धन, और उसकी