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बध-(Dam) की उपमा दे तो पालव को इस वध मे कर्म पुद्गल-रूपी जल के आने के प्रवेशद्वार वाली नहर कह सकते हैं और इस प्रवेशद्वार को बन्द करने वाले किवाड हम 'सपर' को कह सकते है। यह किवाड जिनना भी ज्यादह या कम बन्द हो उतना कर्मप्रवाह कम या ज्यादह अन्दर प्रा सकता है और यदि बिल्कुल ही बन्द कर दिया जाय तो कर्मप्रवाह बाहर ही अटक जाए।
प्रात्मा स्वयं अपने निर्मल अध्यवसायो ( व्यापारो ) के द्वारा यह कार्य करता है, और उसके गुणस्थानक को श्रेणी ज्यो ज्यो ऊंची चढती जाती है त्यो त्यो लवर अर्थात् आस्रवनिरोध भी बटता जाता है । दूसरी ओर आत्मा सवर के द्वारा ज्यो-ज्यो यात्रव को वन्द करता जाता है त्यो-त्यो उसके गुणस्थानको की श्रेणी ऊँची होती जाती है, उसका विकास ( मोक्षमार्ग की दिशा में ) बढता है।
७ बंध -
सवर की अनुपस्थिति मे पात्रव के द्वारा प्रात्मा के प्रदेश में प्रविष्ट कर्मपुद्गल आत्मा के साथ वध जाते है, जड जाते है, उनका स्वभाव, स्थितिकाल, रम और प्रदेशप्रमाण निश्चित हो जाता है और वे आत्मा के साथ प्रोतप्रोत हो जाते है। इस प्रक्रिया को 'बन्वतत्त्व' कहते है। कर्म की जो सारी थ्योरी (Theory)~कर्मशास-है उसका 'बधतत्त्व' के साथ सम्बन्ध है। कम-सम्बन्धी प्रकरण में हमने जो मुख्य आठ प्रकार के कर्म बताये है, उनका आत्मा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध 'बन्धतत्त्व' कहलाता है। यह सम्बन्ध क्षीरनीरवत्' कहा जाता है, अर्थात् दूध मे जैसे पानी एकाकार हो जाता है, वैसे