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[ १८८ ] विकास होता है। यहाँ शक्ति का विकास' साध्य अर्थात् निश्चय है, और ध्यान की क्रिया को साधन अर्थात् व्यवहार गिना जाता है। सामायिक की क्रिया से आत्मा मे समभाव सिद्ध होता है। यहाँ 'समभाव' साध्य अथवा निश्चय और सामायिक की क्रिया को साधन अर्थात् व्यवहार माना जाता है। _ 'निश्चय' शब्द का दूसरा अर्थ 'वस्तु का तात्त्विक स्वरूप' होता है । यहाँ इसी स्वरूप के अनुकूल वाह्य स्वरूप व्यवहार कहलाता है। उदाहरणार्थ-'निश्चय सम्यक्त्व' अर्थात् आत्मा की तत्त्वश्रद्धा की परिणति । इस परिणति के अनुकूल सम्यक्त्व का वाह्य आचार है 'व्यवहार सम्यक्त्व' ।
यहाँ खास ध्यान मे रखने योग्य वात यह है कि, निश्चय को केन्द्र स्थान मे रखकर पाचरित व्यवहार ही सद्व्यवहार है और निश्चय के लक्ष्य से रहित सारा व्यवहार असद्व्यवहार है।
निश्चय और व्यवहार की वात बडे महत्त्व की है। हमारी उन्नति अथवा अवनति का मार्ग निश्चय और व्यवहार के विपय मे हमारी स्पष्ट जानकारी अर्थात् सम्यग्ज्ञान अथवा अज्ञान पर निर्भर है। ___ आत्मिक ( पारमार्थिक ) और भौतिक ( व्यावहारिक ) इन दोनो क्षेत्रो मे हमारा सच्चा उत्कर्ष निश्चय तथा व्यवहार के विपय मे हमारे सुजान के द्वारा ही साधा जा सकता है ।
पारमार्थिक क्षेत्र की वात ले । 'पात्मा स्वभाव से शुद्ध है और कर्म से बँधा हुअा है, अत अशुद्ध है।' इस बात को तो सब ने स्वीकार किया है। यदि हम आध्यात्मिक क्षेत्र मे