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मत्र का निर्माण करता है । यह सकल्पवल किसी भी मत्र का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है । ___इस प्रकार तैयार किया हुआ मत्र, शब्दो के क्षेत्र मे एक अद्भुत औपधि का सा स्थान प्राप्त करता है । विशिष्ट प्रकार की सिद्धियो के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के मत्र इस तरह अस्तित्व मे आये है । इस प्रकार मत्र का स्वरूप पूर्णतः वैज्ञानिक एव बुद्धिगम्य है । मत्रो से अमुक प्रकार के कार्य हुए होने की जो वाते हम पढते है वे सव कपोलकल्पित नहीं होती । हाँ, उनमे मानव-सुलभ अतिगयोक्ति तो होती है। आज भी हमे मत्रशास्त्र के ग्रन्थो मे ऐसे अनेक मत्र मिलते है।
परन्तु मत्र के परिणाम की प्राप्ति मत्र के अस्तित्व मात्र से नही हो जाती । कोई भी व्यक्ति कोई भी मत्र लेकर उसे जपने बैठ जाय तो इतने से ही वह मत्र फलदायक नहीं बन जाता । जैसे उसकी उत्पत्ति मे तीन महत्त्वपूर्ण कारण अपना कार्य करते है, उसी तरह उसकी सिद्धि की कुछ निश्चित शर्ते होती है । इसमे प्राय पाँच शर्ते मुख्य होती है -
(१) श्रद्धा (२) एकाग्रता (३) दृढता (४) विधि (५) हेतु (उद्देश्य)
इनमे सर्व प्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। यहाँ 'श्रद्धा' शब्द का प्रयोग "प्रधश्रद्धा' के अर्थ मे नही किया गया है। जैन तत्त्ववेत्तानो ने बुद्धि तथा श्रद्धा को समान महत्त्व दिया है। उन्होने कहा है कि "श्रद्धा रहित बुद्धि वेश्या है, और