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देता ।"
मै हाथ में झाडू लेकर उन दोनो की ठीक तरह मरम्मत कर लेकिन रमणभाई की स्वस्थता ज्यो की त्यो रहती है । श्री रमणभाई अनेकात दृष्टि द्वारा पत्नी और पुत्री दोनो की स्वाभाविक तथा सायोगिक मर्यादाग्री को ठीक समझ पाते है इसलिये क्रुद्ध होकर शोर-गुल मचाने के स्थान पर वे दोनो को शात चित्त से समझाते है | श्री रमणभाई का समभाव वना रहता हे । श्रसमभाव या क्रोध उन्हें स्पर्श नहीं करते । कर्मबन्धन से वे बच जाते है । ग्रनेकात दृष्टि के कारण उन्हे जो लाभ हुआ वह क्या साधारण लाभ है
?
यदि हम अनेकात दृष्टि का लक्ष्य मे ले तो ऐसी बहुत-सी वाते हमारी समझ मे ग्रामानी से ग्रा जाएँगी। उन मिस्टर जोन्स के बारे मे, उनकी कोई एक ही बात लेकर विचार करना जैसे गलत है ठीक इसी तरह तत्त्व-विचार मे भी, किसी एक ही चीज या एक ही स्वरूप को अपनी नजरो के मामने रखकर उस पर सोच-विचार करना भी गलत है । ग्रापकी समझ मे यह बात ठीक तरह से ग्रा गई न
?
थोडा सा और विचार करे |
जिसके अस्तित्व के बारे मे हम विचार करते है, उसका वह अस्तित्व सर्वथा और चिरकाल तक उसी स्थिति मे कदापि न रहेगा, यदि हम इस बात को स्वीकार कर ले तो फिर अवस्था ( पर्याय) बदलने पर वह चीज जिम स्वरूप मे आज दिखाई देती है ठीक उसी स्वरूप मे बाद मे दिखाई न देगी, उसका वही स्वरूप फिर नही रहेगा, इस वात को हमे स्वीकार करना ही होगा । इसलिये, जव, जिस अवस्था मे