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जिस चीज के अस्तित्व को हम स्वीकार करते है, तब हमारा वह स्वीकार शर्ती Quahfied or conditional बन जाता है । बाद में वह स्वीकार विना शर्त का या ग्रवाध Unqualified on Unconditional नही रह सकता ।
उदाहरण के तौर पर करेले को काट कर जब उसकी सब्जी बनाई जाती है तब भोजन करते समय हम 'करेला दीजिये" ऐसा न कहते हुए "सब्जी दीजिये" कहते है । कपडे से पटलून वनाने के बाद हम जब धोबी के यहा उसे धोने के लिये ले जाते है तब "कपडा धोना है "ऐसा कहने के बजाय " "पटलून धोना है" कहते है । ऐसे तो बहुत से उदाहरण हम प्रस्तुत कर सकते है । पुत्र का नाम "प्रवीण" रखने के बाद " पुत्र कहाँ गया" कहने के बजाय उसके पिता प्रवीण कहाँ गया" ऐसा पूछते है । चमडे से चप्पल बनते ही वह चमडा मिट जाता है ऐसी कोई बात नही फिर भी हम "चमडा कहाँ गया ?" ऐसा न पूछकर "चप्पल कहाँ गई ?" पूछते है |
अवस्था-स्वरूप वदलते ही परिस्थिति मे किस तरह परिवर्तन आ जाता है यह बात अब ठीक समझ मे ग्रा जाएगा । ठीक उसी तरह एक स्वरूप का ग्रास्तित्व जव मिट जाता है तव उसका 'नास्तित्व' ( न + ग्रस्तित्व ) भी निर्मेल नही रह सकता । वह भी शर्ती वन जाता है । सब्जी मे करेले नही है, कोट मे या पटलून मे कपडा है ही नही, प्रवीरण मे पुत्र नही है और चप्पल मे चमडा नही है, ऐसी बात कोई नही कह सकता । अवस्था या स्वरूप बदलने से जब एक स्वरूप