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हमारी समझ और बुद्धि मे 'अपेक्षा' शब्द चामत्कारिक ढग से वृद्धि करता है | यदि हम इसकी उपेक्षा करे तो जहाँ के तहाँ रह जाएँगे, आगे बढने के बदले पीछे रहते जाएँगे ।
जैन तत्त्वज्ञान के ' अनेकान्तवाद' के सिद्धान्त मे 'अपेक्षा - भाव, सापेक्षता' अत्यन्त सक्रिय - Active और महत्त्वपूर्ण important हिस्सा अदा करता है । जीवन के विविध क्षेत्रो मे भी यदि हम अपेक्षा - सापेक्षता - को छोड़ दे तो प्रवेरे मे ही भटकना पडे |
यह अपेक्षावाद या स्याद्वाद केवल श्रमुक प्रकार की चर्चा व्यवहार या बुद्धि की विगदता के लिए ही नहीं है, परन्तु वस्तुमात्र वास्तव से स्वयं जैसी अनेक धर्मात्मक है उसका वैसा ही दर्शन कराने वाला है । इससे ही वस्तु के समस्त स्वरूप समझे जा सकते हैं । इस प्रकार सापेक्षवाद या स्याद्वाद की दृष्टि वस्तु में कुछ नई सृष्टि नही करती, अथवा कोई श्रारोपण नही करती परन्तु मार्गदर्शक को तरह जो कुछ वस्तु में है उसे खोल कर दिखाती है । राम पिता भी है और पुत्र भी, यह भाव लव-कुश की तथा दशरथ की अपेक्षा से स्पष्ट होता है ।
'सापेक्ष' शब्द का अर्थ, 'म + पेक्षा -- जिसमे अपेक्षा रही हुई है सो' होता है । मूलत. प्रधानता उसके अपेक्षा भाव की ही है । यह तथ्य और अपेक्षा गब्द का अर्थ अच्छी तरह समझ लेने पर 'सप्तभगी को समझने मे हमे वडी सरलता रहेगी, और किसी प्रकार की कठिनाई नही होगी ।
चलिये, व हम 'सप्तभगी' का विवेचन करेगे ।