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श्रात्मा जिन कर्मो को शरीर अर्थात् इन्द्रियो से बाँधता है वे तो मनके द्वारा वधने वाले कर्मों के सामने ऐसे है जैसे पहाड के सामने पताशा । श्रात्मा का कर्मों के बन्धन और छेदन का महान साधन मन है । उसमे भी जो ग्रन्तर्मन है, जिसे ग्रेजी मे Sub conscious mind कहते हैं उसमे चलता हुन उपद्रव तो अपरपार है । अग्रेजी मे बाह्यमन को Conscious mind ( जाग्रत चेतन मन ) और ग्रन्तर्मन को Sub conscious mind ( अर्ध जाग्रत मन उपचेतन मन ) कहते है । पाश्चात्य मानस - शास्त्री 'Unconscious mind' ( अ जाग्रत - चेतन मन ) ऐसा मन भी एक शब्द प्रयोग करते है | अर्धजाग्रतता या अजाग्रतता जाग्रत मन की अपेक्षा से है । जहाँ तक आत्मा का सवध है, मानसिक वृत्तियो से भी आत्मा के आन्तरिक ग्राशय और झुकाव आदि का ही विशेष महत्त्व है । आत्मा के जो आन्तरिक शुभ - अशुभ भाव, भावनादि होते है उन्हें जैनतत्त्वज्ञानियों ने 'अध्यवसाय' नाम दिया है ।
एक सट्टाखोर जैसे अपने घर मे एक कमरा बन्द करके बैठे बैठे ही टेलीफोन के द्वारा लाखो के वारे न्यारे करता है, वैसे ही आत्मा अन्त करण मे अपार उथल-पुथल करता है । कहते हैं कि एक 'समय' जितने काल मे श्रनन्त कर्म वधते है और अनन्त कर्म छूटते है । 'समय' काल का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विभाग है और हम जिसे 'एक सेकड' कहते है उसका सख्या - तवाँ भाग 'एक समय' कहलाता है । 'एक समय' जितने काल मे कर्म के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गलप्रनन्त पुद्गल वधते ( जुडते ) तथा छूटते होते है ।