________________
३००
मांगी जो सक्षिप्त हो, फिर भी अचूक हो । उक्त सत पुरुष ने उसे दो वाक्यो मे, केवल दो ही वाक्यो मे और छह शब्दो मे ही यह बात समझा दीपरोपकार पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।
इसी अर्थ के और भी सुभापित हैपरेपा पीडन पापम् । परेपा सुचितन पुण्यम् ।
अर्थात् "परोपकार से पुण्य होता है, दूसरो को दुःख देने से पाप होता है । दूसरो को पीडा-दु ख-हो ऐसा कुछ भी करना पाप है और दूसरो की भलाई सोचना-जीव मात्र के कल्याण की भावना रखना पुण्य है ।" इन दो वाक्यो मे कैसी महान् बुद्धि मूर्त हुई है।
पुण्य कर्म से आत्मा को भौतिक साधन सामग्री तथा आध्यात्मिक जानकारी के साधन-ये दो लाभ होते है । पाप कर्म से आत्मा के लिए भौतिक दुख तथा आध्यात्मिक समझ से दूरत्व उत्पन्न होते है । जैन तत्त्ववेत्ताओ ने पुण्य और पाप के क्षेत्रो मे आने वाले कर्मों की भी विशद समीक्षा की है।
पुण्यानुबधी पुण्य, पुण्यानुवधी पाप, पापानुवधी पुण्य, पापानुवधी पाप आदि कर्मों के विपय मे अधिक से अधिक जानकारी जैनदर्गन मे है । (पुण्यानुवधी पुण्य अर्थात् नया पुण्य उत्पन्न करने वाला पुण्योदय जैसे ऐश्वर्य होते हुए भी धर्म की इच्छा हो । इसी तरह बाकी तीन भी समझ ले ।)
कर्मो के वन्धन तथा छेदन मे द्रव्य की अपेक्षा भाव का महत्त्व अधिक है । मनुष्य के गरीर मे जो मन है, उसके वाह्य स्वरूप के विषय मे हमे थोडा सा ज्ञान है, उसके आन्तरिक स्वरूप का ध्यान तो लाख मे दस बीस को भी होगा या नहीं, यह भी एक प्रश्न है।