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________________ २०६ होता है । जीव और पुद्गल ये दोनो अगल-ग्रलग द्रव्य हैं, फिर भी इन दोनो के बीच सम्बन्ध है । पुद्गल द्रव्य के प्रणु-श्रणु मे जीव द्रव्य - प्रात्मद्रव्य - व्याप्त है, यह तो प्रत्यक्ष बात है । ये सभी सम्बन्ध अलग अलग प्रकार की अपेक्षाग्रो के होते है । यह 'सापेक्षता' विश्व का एक त्रिकालाबाधित नियम है। जैन तत्त्वज्ञानियों ने उत्पत्ति के स्थान पर 'उत्पाद' शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द भी अपेक्षायुक्त - Relative है । उत्पाद का अर्थ है ' उत्पन्न' होना । फिर भी 'उत्पत्ति' प्रोर 'उत्पाद' में अन्तर है । 'उत्पत्ति' में उसके पहले कुछ भी कल्पना मे नही याता, जब कि 'उत्पाद' में उसके पूर्व और कुछ थायह स्पष्ट ग्रर्थ है | When the car is only इसी तरह 'लय' शब्द मे 'उसके बाद कुछ नहीं रहता' यह भाव श्राता है, जबकि 'व्यय' शब्द मे एक अवस्था का नाश होने पर दूसरी अवस्था का ग्राविष्करण सूचित करने वाला और इस प्रकार श्रवस्थान्तर प्राप्त होने पर भी उसके श्राधारभूत मूल द्रव्य के कायम रहने का गुरण प्रकट करने वाला स्पष्ट भाव प्रौर श्रर्थ है ग्रग्निसंस्कार के द्वारा जब मानव-देह का लय अथवा नाग होता है तव जीवित शरीर में चैतन्य रूप जो ग्रात्मा था वह और उसके चले जाने के बाद बाकी रहे हुए पुद्गल - ये दोनो किसी न किसी रूप मे कायम रहते है । श्रत 'व्यय' शब्द मे भी संपूर्ण नाग का भाव नही, परन्तु श्राधारभूत द्रव्य के कायम रहने का भाव है । इसके मूल मे भी सापेक्षता, अपेक्षा भाव --- Relativity का सिद्धान्त ही काम करता है । प्रथम त्रिपदी मे 'स्थिति' शब्द का प्रयोग किया गया है । उसके अर्थ मे तथा जैन तत्त्वज्ञानियों द्वारा व्यवहृत त्रिपदी के
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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