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'ध्रौव्य' शब्द के अर्थ मे भी वडा अन्तर है । 'स्थिति' शव्द का व्यवहार मे जो अर्थ किया जाता है वह है 'जिस स्थिति में हो उसी स्थिति में रहना ।' परन्तु जगत की मानी हुई उत्पत्ति के बाद और माने हुए लय के पहले पहले जो स्थिति है - बीच की जो स्थिति है उसका अर्थ 'वहती हुई स्थिति' होता है । जव किसी वस्तु के सम्बन्ध मे इस शब्द का उल्लेख किया जाय तव भी उसका अर्थ 'वहती हुई स्थिति' ही होना चाहिए।
यह तो हम जानते ही है कि प्रत्येक वस्तु की अवस्था निरन्तर बदलती ही रहती है । परिवर्तनशीलता का सिलसिला चलता ही रहता है । एक स्वरूप ग्रहश्य होने पर दूसरा प्रकट होता है । कोई एक ही स्वरूप दीर्घकाल पर्यंत टिकता हुग्रा मालूम होता हो तो भी उनमें दिन-दिन प्रतिपल फेरफार होता ही रहता है ।
इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि 'स्थिति' नही रहती, व्ययइस्तेमाल होता ही रहता है। रूपान्तरो के द्वारा विनागशीलता एव नवीन नवीन स्वरूपशीलता का क्रम चलता ही रहता है। इसलिए जैन तत्त्ववेत्ताओ ने 'स्थिति' के स्थान पर 'श्रीव्य' शब्द दिया है, क्योकि प्रत्येक परिवर्तन मे भी किसी स्थायी अश की सापेक्षता ( अपेक्षाभाव ) अवश्य रहती है ।
इस प्रकार 'उत्पाद, व्यय और धौव्य, मे हम जिन तीन परिस्थितियों का दर्शन करते हैं, वे स्थितियाँ भी पृथक्-पृथक् भिन्न भिन्न या एक दूसरे से स्वतन्त्र नही है । ये तीनो एक ही वस्तु की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही है । इन तीनो अवस्थायो का एक दूसरे से जो सम्बन्ध है वह सापेक्षता — अपेक्षाभाव पर निर्भर है ।