________________
में उचित स्थान पर आगे करेंगे । यहाँ तो केवल इतना हो समझ लेना चाहिए कि ये सब बाते सत्य और स्पष्ट है। इनमे गडबड या अस्पष्टता को कोई स्थान नहीं । इनमे से प्रत्येक का निश्चित और स्पष्ट अर्थ होता है।
(१७) वेदान्त और दूसरे दर्शनो ने इस विश्व-रचना को 'उत्पत्ति, स्थिति एव लय' नाम के तीन विभागो मे वॉटा है। जव कि जैन दार्गनिको ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐमी तीन परस्पर सम्मिलित अवस्थाएँ बताई है । इस बारे में अधिक जानकारी हम पागे प्राप्त करेंगे ।
(१८) जीव अर्थात प्रात्मा को, जैन दर्शन ने एक स्वतत्र व्यक्तित्व प्रदान किया है। अनादिकाल से प्रत्येक प्रात्मा का स्वतत्र अस्तित्व था पीर अनतकाल तक रहेगा । लेकिन वह आत्मा जब सभी प्रकार के कर्मों से मुक्त हो जाएगा तभी उसे मोक्ष प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि वहाँ मोक्ष मे भो उसका स्वतत्र अस्तित्व तो रहेगा ही ऐसा माना गया है। यह अस्तित्व निर्मल, शुद्ध, जान-स्वरूप और पुनर्जन्म से मुक्त माना गया है।
(१६) जगत की विधायक शक्तियो मे से जैन तत्त्वज्ञान ने कर्मशक्ति को ही प्रधानता दी है। उसके सामने एक अात्मगक्ति है, लेकिन चूंकि ससार से बमा हुना प्रात्मा कर्म के वन्धन से जकडा हुमा है इमलिये वह स्वरूप मे शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध है ऐसा तमझा गया है । इस प्रात्मगक्ति और कर्मगक्ति के बीच अनादिकाल से जो सघर्ष चल रहा है उस सघर्प मे आत्मा की समग्र प्रवृत्ति का ध्येय, कर्म-शक्ति के