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प्राबल्य को तोडकर अर्थात् अपने साथ चिपके हुए तमाम पुद्गलो को झाडकर अपने मूल एव शुद्ध स्वरूप को प्रकट करना है ।
( २० ) ऊपर बताये गये ध्येय की सिद्धि के लिये जैन तत्त्वज्ञान ने सूत्र को हमारे 'सामने रखा है- 'ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष' । इस वाक्य का यह अर्थ हुआ कि 'ज्ञानपूर्वक को गई क्रिया द्वारा मोक्ष' यह एक अनुपम और श्रद्वितीय सूत्र है । यहाँ पर क्रिया शब्द का अर्थ सिर्फ क्रियाकाड ही नही होता बल्कि उसका अर्थ है 'प्रवृत्ति' अथवा 'पुरुषार्थ' । इसमे उन्होने दो प्रकार की क्रियाए बताई है । एक को 'द्रव्यक्रिया' और दूसरी को 'भावक्रिया' कहते हैं । ये दोनो क्रियाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र नही, बल्कि एक दूसरे की पूरक है ।
(२१) यह क्रिया अहिसा के सिद्धान्त पर आधारित है । हिसा शब्द का अर्थ वडा विशाल है । 'ग्रहिसा' को इतना अधिक और विशेष महत्त्व दिया गया है कि धर्म की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या के लिये 'अहिंसा परमो धर्म' (अहिंसा परम धर्म ) ऐसा कहा गया है ।
(२२) जैन तत्त्ववेत्तागरण यह बात भार पूर्वक कहते आये है कि
ससार मे जन्म लेते हुए, मृत्यु पाते हुए, पुन पुन जन्म-मरण के चक्कर मे फँसनेवाले आत्मा की तमाम प्रवृत्तियो का ध्येय 'मोक्षमार्ग की ओर प्रगति करना है । अधर्माचरण द्वारा अवनति होती है जबकि धर्माचरण द्वारा उन्नति होती है, यह बात सर्वविदित है । आत्मा की उन्नति और मोक्षप्राप्ति के