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हेतु जीव मात्र के लिये जो धर्माचरण-धर्म बतलाये गये है उन्हे जैन शास्त्रकारो ने दो विभागो मे बांटा है.
१-सर्व विरति-साधुधर्म २-देश विरति-गृहस्थ धर्म
जैन तत्त्वविशारदो ने इन दोनो प्रकार के आचरण मार्गों का अधिक गहराई में जाकर वर्णन किया है । गृहस्थ के लिये जैन धर्म मे 'श्रावक" शब्द का प्रयोग किया गया है। इन दोनो धर्मों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान एव महत्व है।
(२३) समस्त जैन संघ 'नमस्कार महामत्र' के नाम से परिचित मत्र की अत्यन्त भावपूर्वक आराधना करता है। सकल शास्त्रो के साररूप माने हुए इस महामत्र मे भक्ति, साधना और आत्मविकास मे अचित्य फल प्रकट करने की शक्ति छिपी हुई है।
जैन तत्वज्ञान और धर्म की खास खास और महत्व की बातो का एक छोटा-सा सूचिपत्र ऊपर दिया गया है। इतना सक्षिप्त परिचय प्राप्त कर के अब हम आगे जो कुछ भी देखेगे या सोचेगे उसे समझने मे अधिक सरलता होगी।
जीवन के सभी क्षेत्रो मे, छोटे बड़े सभी प्रश्नो मे हमे सच्ची जानकारी दे सके ऐसी रीति या पद्धति-जिसे हमने 'स्याद्वाद पद्धति' नाम दिया है-पर सोच विचार करने से पहले हम 'धर्म और तत्वज्ञान' के विषय मे थोडा सा विचार कर ले तो इस पद्धति को हृदयगम करने मे हमे बडी सहायता मिलेगी। तो चलिये, अब हम 'धर्म और तत्त्वज्ञान' के विपय में साधारण जानकारी प्राप्त कर लें।