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कातवाद मे से एक एक अन्त पकड कर ग्रागिक सत्य वाले भिन्न भिन्न तत्त्वज्ञान अनेकातवाद मे से रचे गये है-ऐसा कहना शुद्ध तर्कसंगत एव न्याय्य है । __वस्तु के स्वरूप को देखने की जैन दर्शनकारो की मध्यस्थता का सब से बडा सवत तो यह है कि उन्हे अन्य दर्शनो मे जो अशत सत्य दिखाई दिया, उसका इनकार नहीं किया। उसे उन्होने 'सत्य का अश' माना है। परन्तु सत्य के एक अश को कभी पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता, इसलिये, यही तक जैन दार्शनिको ने अन्य दर्शनो का विरोध किया है। इस विरोध में उप नहीं है, पूर्ण सत्य का आग्रह है।
प्रश्न-एक ऐसा मत भी है कि सब धर्मो का समन्वय करके जैन तत्त्वज्ञान का निर्माण किया गया है। इसका अर्थ यह होता है कि अन्य दर्शन पहले थे और जैन दर्शन बाद में प्राया। इस बात का क्या समाधान है ?
उत्तर- यह वात सापेक्ष दृष्टि से कही जाती है कि स्याद्वाद मे अन्य सभी दर्शनो का अन्तिम समन्वय हो जाता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य दर्शनो को मिला कर उनमे से जैन दर्शन की रचना की गई है । इसका केवल इतना ही अर्थ है कि अन्य दर्शनो मे जो आंशिक सत्य है वे सब अनेकातवाद मे तो थे ही।
उदाहरणार्थ-पृथ्वी पर वहने वाली सभी नदियाँ समुद्र में जा कर मिलती है यह एक तथ्य है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सब नदियाँ एकत्रित हो कर समुद्र का सृजन करती है। समुद्र तो उन नदियो के जन्म से पहले भी था । ये नदियाँ समुद्र में मिल गई - इसका अर्थ यही होता है कि