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ज्ञान की यथार्थता का अनुभव भला हमे किस तरह से प्राप्त होगा?
कोई व्यक्ति शायद यह प्रश्न पूछेगा कि ससार भर मे गणितशास्त्र तो सिर्फ एक ही है । लेकिन जहाँ तक तत्त्वज्ञान के विषय का सम्बन्ध है, ऐसे प्रश्न का उठना क्या सभव है ? यहाँ तो 'तीन कनौजिये, तेरह चूल्हे' वाला हिसाव है।
अच्छा तो इस बात को हमने स्वीकार कर लिया कि जगत मे तत्त्वज्ञान के कई प्रकार है । तो फिर हमे जैन तत्त्वज्ञान से ही क्यो प्रारभ करना चाहिये ? किसी और ही तत्त्वज्ञान से प्रारंभ क्यो न करे ? इस तरह के दूसरे प्रश्न का उठना स्वाभाविक है।
इसका जवाब हमे ठीक तरह से याद रख लेना चाहिये। जैन तत्त्वज्ञानियो का यह दावा है कि "जैन दर्शन ही एक ऐसा तत्त्वज्ञान है जिसमे भिन्न-भिन्न तमाम दृष्टिबिन्दु इस तरह से सम्मिलित हो गये है जिस तरह से अनेक सरिताए सिन्धु मे।" इस तरह का दावा किसी और तत्त्वज्ञान ने किया हो ऐसा हमे याद नहीं । ऐसी परिस्थिति मे हम यदि जैन-तत्त्वज्ञान का ही अध्ययन शुरू कर दे तो उसमे आपत्ति की कौन-सी बात है ?
आज विज्ञापन का युग है । पेट मे उठे हुए दर्द को मिटाने के लिये, चमडी को स्वच्छ और मुलायम रखने के लिये किसी एक दवा या साबुन का ही विज्ञापन हम पढ ले । उस विज्ञापन मे, उसी चीज के बारे मे बडे-बडे दावे किये जाते है। इसी विज्ञापन को पढकर हम इनमे से कोई एक चीज खरीदकर लाते है या नही ? विज्ञापन मे जिन गुणो का वर्णन किया गया