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जैन तत्त्ववेत्तानो ने कोई बात अधूरी या अनिश्चित ढग से नहीं कही है। उनकी किसी भी वात मे कही भी अनिश्चितता नही है । इसके विपरीत उसमे स्पष्टतया निश्चितता ही रही
। 'ही' और 'भी'-ये दो शब्द हमारो भाषा मे अनिय त्रित
रूप से प्रयुक्त होते है। इन दोनो गब्दो का निश्चित अर्थ है। सप्तभगी मे 'स्यादस्ति के साथ 'एव' गब्द है, जो एक निश्चितता प्रकट करता है । 'एव' अर्थात् 'हो' । यह 'ही शब्द जहा भी प्रयुक्त होता है वहाँ वह निश्चितता प्रकट करने और वल देने के लिए ही प्रयुक्त होता है ।
'स्यात् +अस्ति+ एव'इन शब्दो के मिलने से बनने वाले वाक्य से 'अमुक वात है ही' ऐमी निश्चितता ही प्रकट की जाती है । साथ ही इसके सिवा और भी' कुछ है । दूसरी ओर 'भो' लगा है । इस बात का भी 'स्यात्'शब्द से निश्चित उल्लेख होता है । ये दो शब्द 'ही' और 'भी' कोई अनिश्चय कोई सभाव्यता या कोई सदेह प्रकट नही करते । ये शब्द 'किसी एक और दूसरे प्रकार का' निश्चय प्रकट करते है । यदि यह वात अच्छी तरह समझ मे आ जाय तो फिर सप्तभगी विपयक समझ मे कोई उलझन या भ्रान्ति नहीं रहेगी।
सप्तभगी मे जव 'अपेक्षा' की वात आती हैं तब वह भी एक निश्चित स्थिति है । यह 'अपेक्षा' शब्द अधूरे या अनिश्चित अर्थ मे नहीं, बल्कि पूर्ण एव निश्चित अर्थ मे ही प्रयुक्त हुआ है । 'टोपा है' और 'टोपी नही है' इन दो परस्पर विरोवी कथनो मे यह अपेक्षाभाव निहित ही है । अत भिन्न भिन्न अपेक्षाओ से भले ही भिन्न भिन्न वाते कही जायँ पर वे सव